मुंबई : साइना एक स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्म है। बायॉपिक है। बैडमिंटन की दुनिया में देश का नाम रौशन करने वाली साइना नेहवाल की कहानी है। फिल्म उनकी जिंदगी के उतार-चढ़ाव, उनके संघर्ष और तमाम मुश्किलों को पार करते हुए दुनिया की नंबर-1 खिलाड़ी बनने की कहानी है। यह फिल्म साइना नेहवाल को एक ट्रिब्यूट की तरह है।
कोई भी चैम्पियन रातों-रात शिखर पर नहीं पहुंचता है। चैम्पियन बनाए जाते हैं। आग में तपकर सोने की तरह निखरते हैं। साइना नेहवाल भी ऐसी ही हैं। हरियाणा में रहने वाले उषा और हरवीर सिंह नेहवाल की बेटी है साइना। हैदराबद से हरियाणा में आ बसे इस कपल की लाडली साइना ने 2015 में इतिहास रच दिया।
वह पहली महिला बैडमिंटन खिलाड़ी बनीं जिसने दुनियाभर में नंबर-1 रैकिंग हासिल की। प्रकाश पादुकोण के बाद वह यह कारनामा करने वाली दूसरी खिलाड़ी बनीं। साइना सिर्फ 31 साल की है। यदि आपका खेल की दुनिया से राबता है तो यकीनन आप साइना नेहवाल के बारे में बहुत कुछ जानते होंगे। उनकी उपलब्िधयों, उनके संघर्ष, उनके कोच पुलेला गोपीचंद और यहां तक कि यह भी कि कैसे एक मिडिल क्लास फैमिली की लड़की ने अपने मां-बाप के सपनों को साकार किया।
कहते हैं कि हर कहानी में कहीं ना कहीं कुछ और कहने की गुंजाइश होती है। साइना जब एक बार बुरी तरह जख्मी हो गई थी, तब मां ने उनसे कहा था, तू साइना नेहवाल है। तू शेरनी है। दुनिया को और मीडिया को कुछ भी और मत सोचने दे। खुद पर भ्रम होना, सबसे बड़ा दुश्मन है। शक को अपने दिल में घर न करने देना। यह मां ही है, जिसकी महत्वाकांक्षा बेटी को दुनिया में नंबर 1 बना देती है। यही साइना की शुरुआत है। एक मां, जो आशावादी है और यही आशा साइना के काम आती है।
अधिकतर स्पोर्ट्स ड्रामा फिल्में खाकसर बाॅयोग्राफी वाले सीधी सादी कहानी कहते हैं। ऐसे जन्म हुआ, फिर परवरिश, फिर ट्रेनिंग और फिर जीत। अमोल गुप्ते ने भी अपनी फिल्म को सिंपल ही रखा है। फिल्म में साइना की कथित राइवल पीवी सिंधु से जुड़े विवादों को छूने की भी कोशिश नहीं की गई है। फिल्म में पीवी सिंधु का कहीं जिक्र भी नहीं है। जाहिर तौर पर डायरेक्टर साहब भी विवादों से बचना ही चाहते थे। यह फिल्म साइना की जिंदगी की कहानी है। कोशिश की गई है कि यह कहानी देशभक्ति के रंग में रंगी हुई नजर आए।
फिल्म में कल्पनाओं का बड़ा महत्व होता है। ऐसे में कई सीन ऐसे भी हैं, जिन्हें देखकर आप यह नहीं कह सकते कि ऐसा वास्तव में भी हुआ होगा। जैसे एक सीन में मां अपनी 12 साल की बेटी को इसलिए थप्पड़ लगा देती है कि वह रनर-अप मेडल पाकर खुश है। पिता फौरन उसे समझाते हैं कि जीतना क्यों जरूरी है। माता-पिता अपने सपनों को बच्चों के जरिए पूरा करना चाहते हैं और यह सब एक तानाबाना ही लगता है।
फिल्म में आपको साइना के किरदार के संघर्ष और बढ़ा-चढ़ाकर नहीं दिखाया गया है। न ही उसकी जीत को ही ऐसा दिखाया गया, जैसे वह देवतुल्य हो। अमोल गुप्ते ने सिंपल सी कहानी के जरिए यह दिखाने की कोशिश् की है कि साइना एक खिलाड़ी के तौर पर बस अपना काम करती गई। वह खेलती गई। एक सिंपल सी कहानी की सबसे ज्यादा मुश्िकल बात यह है कि उसमें एंटरटेनमेंट और दर्शकों को बांधे रखने का पुट कम ही होता है। लेकिन बाजवजूद इसके अमोल गुप्ते इसमें सफल हुए हैं। फिल्म में डायरेक्टर ने बच्चों के साथ बहुत अच्छा काम किया है। खासकर मुंबई की 10 साल की निशा कौर, जिसने यंग सानिया का किरदार निभाया है, उसके साथ अच्छी ट्यूनिंग दिखी है।
फिल्म में निशा कौर की एक्टिंग दिलचस्प है। वह न सिर्फ यंग सानिया की असल झलक देती है, बल्कि खेल को लेकर उसके स्किल्स भी पर्दे पर अच्छे दिखते हैं। जहां तक बात परिणीति चोपड़ा की है तो एक बैडमिंटन चैम्पियन के किरदार को निभाना उनके लिए एक मुश्किल काम जरूर था। ऐसा इसलिए कि उन्हें गेम की टेक्निक सीखने से लेकर बाकी ट्रेनिंग के लिए भी काफी कम समय मिला। ऐसे में यह कमी कई मौकों पर उनकी आंखों में दिख जाती है।
परिणीति ने एक मायने में बहुत अच्छा काम किया है। यह है फिजिकली खुद को इस कैरेक्टर में पुश करने का। अमोल गुप्ते के लिए सबसे मुश्किल काम था साइना नेहवाल की कहानी को सहज तरीके से एंटरटेनिंग बनाना, क्योंकि साइना की जिंदगी से कोई खास विवाद नहीं जुड़े हैं और उनका जीवन भी पारदर्शी रहा है। दुनियाभर में छा जाने वाली साइना की कहानी में बहुत ज्यादा स्ट्रगल भी नहीं रहे, क्योंकि उनके पैरेंट्स बहुत सपोर्टिव माता-पिता रहे हैं। प्यार करने वाली बहन, दोस्तों का एक बड़ा समूह और पति (परुपल्ली कश्यप) भी हैं जो साइना के लिए चीयरलीडर बने रहे।
साइना बचपन से ही एक विनर की तरह पली-बढ़ीं। ऐसे में उनका कोई ऐसा संघर्ष नहीं है, जो दर्शकों के दिल के तार को छूता हो। हालांकि, अमोल गुप्ते पूरी फिल्म में साइना को शेरनी दिखाने की कोशिश लगातार करते हैं। उनकी फिल्म बैडमिंटन के लिए भारत की पोस्टर गर्ल के बारे में एक अच्छी कहानी है। इसमें भी कोई शक नहीं है कि यह फिल्म और अधिक यादगार हो सकती थी। लेकिन यह युवाओं को प्रेरित करने के भाव में भी कमतर ही दिखती है।