बलरामपुर: छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिले में अंग्रेजों से लोहा लेने वाले शहीद लागुड़ नगेसिया का 109 साल बाद शुक्रवार को अंतिम संस्कार किया गया। सन् 1913 में लागुड़ को अंग्रेजों ने मृत्युदंड दिया था और उसके कंकाल को एक स्कूल में रखवा दिया था। नगेसिया समाज के लिए आज का दिन ऐतिहासिक रहा। लागुड़ नागेसिया की शव यात्रा के दौरान आदिवासी वाद्ययंत्रों के साथ उनको विदाई दी गई। शवयात्रा के दौरान समाज की महिलाओं, पुरुष व युवतियों ने पूरे मार्ग पर फूल बरसाए। लागुड़ के अंतिम संस्कार में जनप्रतिनिधि, आदिवासी समाज के नेता, परिवार व आसपास के लोग बड़ी संख्या में शामिल हुए। अंतिम संस्कार सामरी में किया गया। प्रशासन की मौजूदगी में अंतिम संस्कार किया गया। अंत्येष्टि स्थल में 300 से ज्यादा पुलिसकर्मियों की ड्यूटी लगाई गई है।
बता दें कि छत्तीसगढ़ के सरगुजा में ब्रिटिशकाल में अंग्रेजी हुकूमत से लड़ने वाले एक शहीद का कंकाल सरगुजा जिला मुख्यालय अंबिकापुर के सबसे पुराने स्कूल में रखा हुआ था, जिसे आदिवासी समाज के लोग उनके परिजन को देने की मांग कर रहे थे, ताकि वे उसका अंतिम संस्कार कर सकें। स्कूल में विज्ञान के छात्रों को पढ़ाने के हिसाब से कंकाल को रखने की बात कही जा रही थी, लेकिन समाज के लोग सवाल उठाते रहे कि वर्ष 1913 में जब कुसमी इलाके के लागुड़ नगेसिया शहीद हुए थे, तब स्कूल भवन में इतनी बड़ी पढ़ाई नहीं होती थी कि वहां किसी का कंकाल रखकर पढ़ाई कराई जाए। इधर भाजपा के कद्दावर नेता नंदकुमार साय भी शहीद लागुड़ के अंतिम संस्कार में शामिल होने पहुंचे। नंदकुमार साय ने कहा कि सामरी में लागुड़ की प्रतिमा स्थापित की जाए। शहीद का दर्जा दिलाने मिलकर प्रयास करेंगे। अंतिम संस्कार में चिंतामणि महाराज भी शामिल हुए।
झारखंड के टाना आंदोलन में हुआ था शामिल
सरगुजा संभाग के बलरामपुर जिला स्थित कुसमी ब्लॉक के राजेंद्रपुर निवासी लागुड़ नगेसिया पुदाग गांव में घर-जमाई बनकर रहता था। इसी दौरान उसका झुकाव झारखंड में चल रहे टाना भगत नामक आंदोलनकारी के शहीद होने के बाद टाना आंदोलन से हुआ। वह आंदोलन में शामिल हुआ और लागुड़ के साथ बिगू और कटाईपारा जमीरपाट निवासी थिथिर उरांव के साथ आंदोलन करने लगे। उन्होंने अंग्रेजों के लिए काम करने वालों को मार डाला।
सरगुजा क्षेत्र में लागुड़-बिगुड़ आज भी प्रसिद्ध
सन् 1912-13 में थीथिर उरांव को घुड़सवारी दल ब्रिटिश आर्मी ने मार डाला और लागुड़ व बिगुड़ को पकड़कर ले गए। ऐसा कहा जाता है कि दोनों को खौलते तेल में डालकर मार डाला गया। इनमें से एक लागुड़ के कंकाल को तब के एडवर्ड स्कूल और वर्तमान के मल्टी परपज स्कूल में विज्ञान के स्टूडेंट को पढ़ाने के नाम पर रखवा दिया गया था। लागुड़-बिगुड़ की कहानी सरगुजा क्षेत्र में लागुड़ किसान और बिगुड़ बनिया के रूप में आज भी प्रसिद्ध है।
लागुड़ का दामाद गांव में सुनाता था कहानी
लागुड़ की नातिन मुन्नी नगेसिया चरहट कला ग्राम पंचायत में रहती है। मुन्नी की मां ललकी, लागुड़ की बेटी थी। ललकी की शादी कंदू राम से हुई थी। एक साल पहले ललकी और कंदू की मौत हुई। चरहट कला के सरपंच मनप्यारी भगत के पति जतरू भगत बताते हैं कि लागुड़ का दामाद कंदू हमेशा गांव में अपने ससुर की कहानी सुनाता था और कहता था कि गांव में उनकी मूर्ति स्थापना करनी चाहिए। परिजनों ने सरकार से मांग भी की थी, लेकिन अब तक कोई पहल नहीं हो पाया है।
1982 में हुआ था प्रतीकात्मक अंतिम संस्कार
सर्व आदिवासी समाज के लोग कंकाल का डीएनए टेस्ट कराने की मांग करते रहे हैं। वे इसके लिए भाजपा की डॉ. रमन सरकार के समय मांग कर चुके हैं, लेकिन इस पर सरकार ने कोई पहल नहीं की। वहीं 1982 में संत गहिरा गुरु ने लागुड़ की आत्मा की शांति के लिए प्रतीकात्मक रूप से रीति रिवाज से कार्यक्रम कराया गया था। वहीं 25 जनवरी को सर्व आदिवासी समाज के लोगों ने कलेक्टर से लागुड़ के कंकाल को उनके परिजन को दिलाने मांग की थी।