जगदलपुर: छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में 75 दिनों तक चलने वाले विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा की सबसे खास रस्म काछनगादी रविवार देर शाम अदा की गई। इस दौरान पनका जाति की 6 साल की कन्या पीहू पर काछन देवी सवार हुईं। उन्होंने बेल के कांटों से बने झूले पर लेट कर बस्तर राज परिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव को दशहरा पर्व पर रथ यात्रा की अनुमति दे दी है। इसके बाद दशहरा पर्व की खास रस्में मनाने की शुरुआत हो जाएगी। पर्व के लिए देवी मां की अनुमति लेनी की यह परंपरा करीब 610 साल पुरानी है।
जगदलपुर के भंगाराम चौक स्थित काछनगुड़ी में यह परंपरा निभाई गई है। इस दौरान मंदिर के पुजारी सहित समिति के लोगों ने विधि-विधान से देवी की पूजा-अर्चना की। इसी गुड़ी में पहली कक्षा में पढ़ने वाली पनका जाति की पीहू श्रीवास्तव ने करीब 9 दिनों तक देवी की अराधना की थी और उपवास भी रखा था। पीहू ने पहली बार इस परंपरा को निभाया है। इससे पहले पनका जाति की ही एक अन्य कन्या अनुराधा ने करीब 5 से 6 सालों तक इस परंपरा को निभाया था।
पनका जाति की कन्या 22 सालों से निभा रही रस्म
बस्तर दशहरा में अधिकांश जाति के और गांव के लोगों के लोग दायित्व और परंपरा निभाते हैं। जैसे झारउमर और बेड़ाउमर गांव के लोगों को ही रथ निर्माण करने की अनुमति है। उसी तरह पिछले 22 सालों से पनका जाति की ही कन्या काछनगादी की रस्म अदा कर रही है। बस्तर राज परिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव ने कहा कि, माटी पुजारी होने के नाते मैं इस रस्म को पूरी करने के लिए उपस्थित होता हूं। दशहरा मनाने माता से अनुमति मांगता हूं। माता आशीर्वाद देतीं हैं कि बस्तर दशहरा निर्विघ्न और बिना किसी बाधा के हो।
रण की देवी माना जाता है काछनदेवी को
जानकार बताते हैं कि बस्तर महाराजा दलपत देव ने काछनगुड़ी का जीर्णोद्धार कराया था। काछनदेवी को रण की देवी भी कहा जाता है। पनका जाति की महिलाएं धनकुल वादन के साथ गीत भी गाती हैं। हर साल बस्तर राज परिवार के सदस्य कमलचंद भंजदेव काछनगुड़ी पहुंचते हैं। फिर, देवी से दशहरा मनाने की अनुमति लेते हैं। ऐसा माना जाता है कि अगर देवी अनुमति नहीं देंगी तो दशहरा नहीं मनाया जा सकेगा। हालांकि सदियों से चली आ रही इस परंपरा में ऐसा कभी नहीं हुआ है।