नई दिल्ली: ऋषि कपूर ने हिंदी सिनेमा को इतराना सिखाया है। उनकी फिल्मों का अपना एक अलग आभा मंडल रहा है। उनकी मुस्कान के करोड़ों लोग दीवाने रहे हैं। नई पीढ़ी के लोग उन्हें अभिनेता रणबीर कपूर के पिता के तौर पर जानते रहे और ऋषि कपूर से बरसों तक संवाद करते रहे हम जैसे लोगों के लिए ऋषि कपूर एक ऐसे कलाकार रहे जो अपने चाहने वालों से संवाद के लिए हर समय उपलब्ध रहते। रणबीर कपूर भले अपने पिता की आखिरी फिल्म ‘शर्माजी नमकीन’ के प्रचार के लिए सिर्फ अंग्रेजी न्यूज चैनलों से ही बातें करने की शर्त रखते हों, लेकिन ऋषि कपूर ने हमेशा रणबीर का नादानियों को माफ किया और जरूरत पड़ने पर उनकी तरफ से हिंदी मीडिया से माफी भी मांगी। खैर, ये बातें बीती बातें हैं और हिंदी सिनेमा के लोगों को इनसे खास फर्क भी नहीं पड़ता। ऋषि कपूर की आखिरी फिल्म ‘शर्माजी नमकीन’ उनके चाहने वालों के सामने हैं। फिल्म देखते समय आपको ऋषि कपूर की पिछली फिल्मों ‘राजमा चावल’ और ‘दो दूनी चार’ की याद आती रहती है, लेकिन ये फिल्म ऋषि कपूर के कैमरे के सामने आखिरी अभिनय के लिए तो देखनी ही चाहिए, इसे देखना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि फिल्म में अभिनेता परेश रावल ने जो ऊष्मा भरी है, वह काबिले तारीफ है।
जिंदगी जिंदादिली का नाम है
फिल्म ‘शर्माजी नमकीन’ कहानी है एक ऐसे सेवानिवृत्त इंसान की जो अब भी खुद को रिटायर नहीं मानता। उसका जिंदगी जीने का अपना एक स्वाद है। वह सादी दाल जैसी जिंदगी नहीं जीना चाहता। घर वाले उसकी सुने ना सुने, वह अपनी धुन का तड़का है। दोस्त सलाह देते हैं। वह इरादे बांधता है। देश में जैसे जैसे बुजुर्गों की संख्या में इजाफा हो रहा है, इस तरह की कहानियां बननी बहुत जरूरी हो चली हैं, जिनमें 60 के ऊपर हो चले लोगों को परिवार पर बोझ न माना जाए। ऋषि कपूर ने यहां अपनी अमिताभ बच्चन के साथ बनी फिल्म ‘102 नॉट आउट’ के ठीक विपरीत सुर पकड़ा है। शर्मा जी किटी पार्टियों के लिए खाना बनाने का बीड़ा उठाते हैं। अपनी नीरस हो रही जिंदगी को खुद ही नमकीन कर जाते हैं। फिल्म ‘शर्माजी नमकीन’ कहानी है जिंदगी को एक नजरिया देने की और तारीफ इस कहानी की इसलिए भी करनी जरूरी है कि ये हिंदी फिल्मों की आम फिल्मों से अलग है और ये हौसला जुटाया है पहली बार फिल्म निर्देशन में उतरे हितेश भाटिया ने।
हितेश भाटिया का हौसला
निर्देशक के रूप में हितेश भाटिया के लिए फिल्म ‘शर्माजी नमकीन’ एक ऐसी फिल्म है जिसे वह अपने पूरे करियर में दिल से लगाकर रखना चाहेंगे। बनाई भी ये फिल्म उन्होंने दिल से ही है। फिल्म में जहां जहां भी झोल दिखते हैं, वे इसीलिए हैं क्योंकि वह फिल्म को कारोबारी रूप से सफल होने के न तो टोटके डाल रहे हैं और न ही उनका दिमाग उन्हें ऐसा कुछ करने या मानने को मना पाया जिसके लिए इन दिनों निर्माता परेशान रहते हैं। रितेश सिधवानी और फरहान अख्तर के रूप में उन्हें दो नए जमाने की सोच वाले निर्माता मिले और फिल्म ‘शर्माजी नमकीन’ इसी टीम की हिम्मत, हौसले और हार न मानने की सोच का परिणाम है। हितेश ने ऋषि कपूर के निधन के बाद जिस सहजता से वही रोल परेश रावल से कराया है वह काबिले तारीफ है।
ऋषि कपूर बस ऋषि कपूर हैं…
अभिनेता ऋषि कपूर को उनकी इस आखिरी फिल्म में देखना भर भावुक कर जाता है। उनकी बीमारी के आखिरी दिनों तक मेरा उनसे संवाद रहा और कभी भी उन्होंने एक सुपरस्टार रह चुके होने या एक सुपरस्टार का बाप होने का ना तो अभिमान दिखाया और न ही नखरा। उनकी सहजता उनके अभिनय में भी रही है। वह कैमरे के लिए ही लगता बने थे। फिल्म ‘शर्माजी नमकीन’ में उनका अभिनय यूं लगता है, बस बहे जा रहा है। उनके आसपास के कलाकारों को उनकी इस सहजता का सामना करने में अक्सर दिक्कत होती है। फिल्म में उनके बेटे बने कलाकारों में तारुक के साथ के उनके सीन खासतौर से याद रह जाते हैं। तारुक आने वाले समय के अभिनेता हैं और उनमें अपने किरदार को बिना किसी दूसरे कलाकार के आभामंडल में आए निभा जाने की काबिलियत है। फिल्म में जूही चावला की मौजूदगी उमंग जगाती है। शर्माजी के स्वाद की वह खुशबू हैं। शीबा चड्ढा और सतीश कौशिक ने कहानी को साधने में अच्छी मदद की है।
ओटीटी के दौर की मर्मस्पर्शी कहानी
फिल्म ‘शर्माजी नमकीन’ जैसी फिल्में अब सिनेमाघरों में रिलीज हो पाया करेंगी, लगता नहीं है। जमाना अब अक्षय कुमार को भी ‘अतरंगी रे’ या ‘मिशन सिंड्रेला’ जैसी फिल्मों में देखने सिनेमाघर नहीं जाना चाहता। वह कुछ अतरंगी सा देखना तो चाहता है लेकिन ऐसा जो बस नाम का ना हो। इस मामले में फिल्म ‘शर्माजी नमकीन’ की तकनीकी टीम का नजरिया शुरू से साफ है कि वह जिंदगी के स्वाद की फिल्म बना रहे हैं। शोशेबाजी इस फिल्म का डीएनए है ही नहीं। पीयूष का कैमरा जिंदगी की जिंदादिली के डीएनए को साधकर पूरी फिल्म में सफर करता है और कामयाब रहता है। बोधादित्य बनर्जी से ये उम्मीद जरूर रही कि वे इस फिल्म को ओटीटी पर देखने के लिए इसकी लंबाई कम रखते। दो घंटे 39 मिनट की फिल्म ओटीटी के लिहाज से लंबी है। फिल्म का एक और उजला पक्ष है इसका संगीत। स्नेहा खानविलकर ने ये मोर्चा बखूब संभाला है।
चलते चलते…
और, चलते चलते जिक्र परेश रावल का। बीच रिव्यू में उनके बारे में जिक्र न आना ही उनके इस फिल्म में होने की जीत है। वह शर्माजी भी हैं और नमकीन भी। बीच फिल्म में एक कलाकार के गुजर जाने के बाद दूसरा कलाकार बिना अपना कोई आभामंडल जगाए दूसरे की ऊर्जा के साथ ऐसा समरस हो सकता है, सोचना भी मुश्किल है। लेकिन, परेश रावल इसीलिए तो परेश रावल हैं। उनका ये सिनेमाई अवतार भी लोग बरसों बरस याद रखेंगे।